हाँ एक बात जरूर है की समाजवादियों में जितना अधिक विखराव हो चूका है और कई बार सत्ता में उनके रहने के बाद जिस तरह उनका पतन हो चूका है उसके अधर पर देखा जय तो उनसे सचमुच कोई बड़ी उम्मीद करना व्यर्थ होगा लेकिन लेफ्ट ने अपने सम्मान और अपने सिद्धांतों की रक्षा किसी हद तक की है इसलिए उम्मीद भी उन्हीं से की जा सकती है साथ ही यह भी उम्मीद की जा सकती है की समाजवादी नेताओं का भले ही पतन हो गया हो लेकिन उसके समर्थकों का पतन नहीं हुआ है जो किसी नए आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं .
लेफ्ट से ज्यादा उम्मीद इसलिए है की उसके समर्थक पूरे देश में हर जगह मिल सकते हैं और देखा गया है की वेकिसी न किसी रूप में किसी न किसी फ्रोंत के जरिये एक्टिव भी हैं चाहे टीचिंग के मैदान में हों या एन जी ओ अथवा लेखन और पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण फील्ड में हों , फिल्मों में भी इनकी उपस्थिति कम नहीं है मुझे तो कभी कभी ऐस्सा लगता है की सांस्कृतिक मंच और ट्रेड युनिअनों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है बस उन्हें सामान के साथ इकठ्ठा करने की जरूरत है उनके अनुभओं को भी सुनने और देश की जो नै दिशा हो उसपर उनके विचारों को बिना किसी टीका-टिप्पड़ी के एक बार तो सुनना ही पड़ेगा तभी देश में लेफ्ट आन्दोलन को निर्णायक दिशा में मोड़ा जा सकता है /
वाम एकता और सभी कमुनिस्ट पार्टियों के विलय पर भी बीच-बीच में कोशिशें होती रही हैं केंव्की किसी भी लेफ्ट समर्थक अथवा धुर लेफ्टिस्ट को यह बात अच्छी नहीं लगती की मौलिक रूप से तो सभी कमुनिस्ट पार्टियाँ मार्क्सवादी-लेनिनवादी तथा माओ की महान उपलव्धियों से सहमत हैं फिर भी आखिर कौन सी समस्या है जो अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग की नीति पर चलती जा रही हैं / मुझे यह सौभाग्य प्राप्त है की १९९६ में मैंने भाकपा (माले) और माकपा और भाकपा के बड़े नेताओं से कमुनिस्ट एकता के बारे में जनसत्ता अख़बार के जरिये बहस को अंजाम दिया . माकपा के सीताराम यचूरी और माले के कामरेड विनोद मिश्र ने इस बहस में बड़ी गंभीर दिलचस्पी दिखाई /
जो बहस चली थी उसकी कुछ पेपर कटिंग आप लोगों की सेवा में जस का तस पेश कर रहा हूँ /
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